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मार्च, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

चौपड़ के खेल : भाग्य और कौशल का मेल

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चौपड़ का अर्थ है, चौरस(वर्गाकार) खानों से बनी आकृति। हांलांकि इस शब्द का प्रयोग अधिकतर चौसर के खेल के लिये किया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि चौसर के अलावा साँप-सीढ़ी और शतरंज भी एक तरह से चौपड़ के खेल ही हैं, क्योंकि ये भी वर्गाकार खानों के रूप में ही होते हैं। हमारे लिये गर्व का विषय यह है कि इन सभी खेलों की जन्मस्थली भारत है। इनकी उत्पत्ति को लेकर मान्यताएँ और इनके विषय में कुछ रोचक तथ्य इस प्रकार हैं। ■ साँप-सीढ़ी माना जाता है कि साँप-सीढ़ी का खेल १३वीं शताब्दी में सन्त ज्ञानदेव द्वारा बनाया गया। इसका उद्देश्य खेलने वाले को नैतिकता का पाठ पढ़ाना था। इसके बाद इसमें कई बदलाव किये गये जिससे यह अपने वर्तमान स्वरूप में आया। साँप-सीढ़ी पूरी तरह से भाग्य का खेल है। इसमें पासे खुलने पर खिलाड़ी को साँप का काटा जाना पतन को दर्शाता है, जबकि सीढ़ी उन्नति की परिचायक है और जीत की ओर ले जाती है। साँप या सीढ़ी का मिलना केवल पासे गिरने की स्थिति अर्थात् भाग्य पर निर्भर करता है। ■ चौसर चौसर के खेल का वर्णन महाभारत में मिलता है, जहाँ इस खेल ने कहानी की दिशा मोड़ दी थी। इस खेल के चलते कई महत्वपूर्ण घटनाएँ हुईं

यत्र नार्यस्तु पूज्यंते...

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यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमन्ते तत्र देवता।  भारतवर्ष की धरोहर के स्वर्णिम पृष्ठों में से एक पृष्ठ है शक्ति के अभिज्ञान का। यहाँ 'नार्यस्तु पूज्यंते' का अभिप्राय नारी और नारित्व के सम्मान और समायोजन से है। इसका अर्थ है की यह भूमि युगों-युगों से नारी की शक्ति और सामर्थ्य को जानती और पहचानती रही है।  प्राचीन ग्रंथों और साहित्य में सदा से महिलाओं को स्वयंसिद्ध व विवेकशील माना गया है। उन्हें अपने निर्णय स्वयं लेने के लायक समझा जाता रहा है। नारी सशक्तीकरण जैसी योजनाओं की आवश्यकता हमारे देश को क्यों पड़ी, यह एक यक्ष प्रश्न है। क्योँकि, इस राष्ट्र की नारियाँ तो सदा से सशक्त और समर्थ रहीं हैं। उन्हें कठपुतली की तरह नचाया जाना कभी मंजूर नहीं रहा। भारत के इतिहास में ऐसे असंख्य उदाहरण हैं जो शक्ति के साहस की मिसाल हैं। चाहे वो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई हो, जिन्होनें ब्रिटिश साम्राज्य के दांत खट्टे कर दिये या फिर वो राजस्थान की वीरांगनाएं हों जिन्होनें आतताइयों के समक्ष झुकने की बजाय स्वयं को अग्नि में आहूत कर दिया। बेगम रज़िया सुल्ताना, जिन्होनें ना केवल बाह्य बल्कि पारिवारिक विरोध भी सहा, म

तांबूल : सत्कार, सौंदर्य, स्वाद, सेहत

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तांबूल अर्थात् पान चिरकाल से भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है। पान का प्रयोग विभिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न रूप से किया जाता है। कहीं इसे पूजा सामग्री के रूप में प्रयुक्त किया जाता है, तो कहीं इसका प्रयोग अतिथियों के सत्कार में होता है। सेहत के लिए भी यह लाभदायक है,और मुखशुद्धि के लिये ये किसी भी माउथ फ्रेशनर को पीछे छोड़ सकता है।  इस सादे से पत्ते में औषधीय गुणों की प्रचुरता है। यह भोजन को पचाने में सहायक है, यही कारण है कि हमारी संस्कृति में भोजन के पश्चात मेहमानों को पान का बीड़ा दिया जाता था। अत: सत्कार की यह अद्भुत परम्परा दरअसल सेहत से जुड़ी है। और यह कहना भी गलत न होगा कि हमारी सांस्कृतिक विरासत वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित है।  सिर्फ सत्कार ही नहीं, पूजा-अर्चना के विधि-विधान में भी तांबूल की  भूमिका  अति महत्वपूर्ण  है। हिन्दू संस्कृति में इसका महत्व पूजा-पाठ में धूप, दीप और नैवेद्य के समान ही है। क्योंकि किसी भी शुभ कार्य में इष्टदेव को  धूप, दीप, नैवेद्य के साथ पान-सुपारी भी अर्पण किया जाता है। शादी-ब्याह, यज्ञोपवीत आदि संस्कारों में तांबूल का प्रयोग अवश्य होता है। इ