यत्र नार्यस्तु पूज्यंते...


यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमन्ते तत्र देवता। 

भारतवर्ष की धरोहर के स्वर्णिम पृष्ठों में से एक पृष्ठ है शक्ति के अभिज्ञान का। यहाँ 'नार्यस्तु पूज्यंते' का अभिप्राय नारी और नारित्व के सम्मान और समायोजन से है। इसका अर्थ है की यह भूमि युगों-युगों से नारी की शक्ति और सामर्थ्य को जानती और पहचानती रही है। 

प्राचीन ग्रंथों और साहित्य में सदा से महिलाओं को स्वयंसिद्ध व विवेकशील माना गया है। उन्हें अपने निर्णय स्वयं लेने के लायक समझा जाता रहा है। नारी सशक्तीकरण जैसी योजनाओं की आवश्यकता हमारे देश को क्यों पड़ी, यह एक यक्ष प्रश्न है। क्योँकि, इस राष्ट्र की नारियाँ तो सदा से सशक्त और समर्थ रहीं हैं। उन्हें कठपुतली की तरह नचाया जाना कभी मंजूर नहीं रहा।

भारत के इतिहास में ऐसे असंख्य उदाहरण हैं जो शक्ति के साहस की मिसाल हैं। चाहे वो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई हो, जिन्होनें ब्रिटिश साम्राज्य के दांत खट्टे कर दिये या फिर वो राजस्थान की वीरांगनाएं हों जिन्होनें आतताइयों के समक्ष झुकने की बजाय स्वयं को अग्नि में आहूत कर दिया। बेगम रज़िया सुल्ताना, जिन्होनें ना केवल बाह्य बल्कि पारिवारिक विरोध भी सहा, मगर उससे उपर उठ कर सफलतापूर्वक राज किया। 

हमारे पौराणिक ग्रंथों में भी सीता, सावित्री, द्रौपदी, आदि कई सशक्त नारियों का वर्णन मिलता है, जिन्होनें अन्याय का विरोध किया और प्रतिशोध भी किया। इन कथाओं से स्पष्ट होता है कि भारतीय नारी चिरकाल से ही दृढ़ता और सबलता की प्रतिमूर्ति रही है। शास्त्रों में भी तो विद्या-बुद्धि का स्त्रोत सरस्वती, दुष्टों के लिये काल-रूप काली, धन-वैभव की दात्री लक्ष्मी, पराशक्ति दुर्गा, ये सभी नारी-रूप हैं। 

हालांकि वर्तमान परिपेक्ष्य में इस छवि को नकारा जा रहा है, इसलिये और अधिक आवश्यकता है कि नारी स्वयं को समर्थ, सशक्त और दृढ़ बनाए। अन्याय देख कर या सह कर चुप ना रहे। क्योंकि यही हमारा इतिहास और हमारी थाती है। और इस अद्भुत विरासत को संजोकर पोषित करना हमारा अधिकार भी है और कर्तव्य भी। 

नारी को पूजें या ना पूजें, उसे समझें, सम्मान दें। यही हमारी परम्परा है, संस्कृति है। स्वर्ग वहीं है, जहाँ नारी सम्मानित है।

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चित्र-इंटरनेट से साभार


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