गढ़ तो चित्तौड़गढ़...
किसी कवि ने कहा है,
"चित्त तोड़ दिए अरि के जिसने,
चित्तौड़ उसी का नाम पड़ा।"
चित्तौड़गढ़ बलिदान और तपस्या की, कर्म और धर्म पर मर मिटने की भूमि का नाम है। देशभक्ति, स्वामिभक्ति और शौर्य यहां की आबोहवा में बसा हुआ है।
12 कोस की परिधि में बना चित्तौड़गढ़ दुर्ग कलात्मकता की मिसाल है। यह दुनिया के भव्यतम दुर्गों में से एक है। कीर्ति स्तंभ, विजय स्तंभ और अनेकों महलों से सुसज्जित इस किले ने कई बार शत्रुओं को धूल चटा कर उल्टे पांव लौटने पर मजबूर किया है।
लेकिन चित्तौड़गढ़ की विशेषता केवल यह दुर्ग ही नहीं यहां का अभूतपूर्व इतिहास भी है। रानी पद्मनी का जौहर, इतिहास की महानतम गाथाओं में से एक है, वहीं पन्नाधाय की स्वामिभक्ति अपने आप में एक अलग कहानी है। इसे महाराणा प्रताप का गढ़ और जौहर का गढ़ भी कहा जाता है।
वैशाख शुक्ल अष्टमी को चित्तौड़गढ़ के स्थापना दिवस दिवस यानि चित्तौड़ी आठम के रूप में मनाया जाता है जो शायद ही राज्य में किसी और जिले के लिए होता हो।
■ शौर्य और बलिदान की भूमि
चित्तौड़गढ़ वह भूमि है जिसने समूचे भारत के सम्मुख शौर्य, देशभक्ति एवम् बलिदान का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया। यहां के असंख्य वीरों ने अपने देश तथा धर्म की रक्षा के लिए लहू बहाया है। वहीं वीरांगनाओं ने कई अवसर पर अपने सतीत्व की रक्षा के लिए जौहर की अग्नि में प्रवेश कर आदर्श उपस्थित किए। यहां की मिट्टी का का कण-कण देशप्रेम से सराबोर है। बप्पा रावल, महाराणा सांगा, महाराणा कुंभा, राणा रतन सिंह, महाराणा प्रताप यहां के अत्यंत प्रतापी राजा रहे हैं।
■ महाबली भीम और भीमताल
चित्तौड़गढ़ ने इतिहास के पन्नों में सदैव अपनी गहरी छाप छोड़ी है।
यहां के गौरवशाली इतिहास में एक अध्याय महाभारत काल का भी है, जिसके अनुसार महाभारत काल में महाबली भीम ने अमरत्व के रहस्यों को समझने के लिए इस स्थान का दौरा किया और एक पंडित को अपना गुरु बनाया। लेकिन आवश्यक प्रक्रिया पूरी करने से पहले अधीर हो जाने के कारण वे अपना लक्ष्य नहीं पा सके और क्रोध में आकर अपना पांव धरती पर मारा, जिससे वहां पानी का स्रोत फूट पड़ा, इसी कुण्ड को भीम-ताल कहा जाता है।
■ मौर्य व मेवाड़ शासन
इतिहासकारों के अनुसार चित्रांगद मौर्य नें 7 ई. में इस नगर की स्थापना की तथा 1568 तक चित्तौड़गढ़ मेवाड़ की राजधानी रहा। माना जाता है गुलिया वंशी बप्पा रावल ने 8वीं शताब्दी में सोलंकी राजकुमारी से विवाह किया और चित्तौड़ को दहेज के एक भाग के रूप में प्राप्त किया। बाद में उनके वंशजों ने मेवाड़ पर शासन किया।
■ कलात्मकता का पर्याय
चित्तौड़गढ़ दुर्ग अपनी अनूठी निर्माण कला के लिए भी अत्यंत प्रसिद्ध है। यहां स्थित विजयस्तंभ, कीर्तिस्तंभ और समिद्वेश्वर मंदिर विश्वभर के इंजीनियरों के लिए शोध का विषय हैं। यहां के प्राचीन वास्तु ग्रंथ आईआईटी खड़गपुर, तकनीकी विश्वविद्यालय व नेशनल म्यूजियम भोपाल में रखे हुए हैं।
सातवीं से चौदहवीं शताब्दी तक दुर्ग, महल, स्मारक, मंदिर आदि का निर्माण करने वाले शिल्पकारों को महाराणाओं द्वारा बहुत सम्मान दिया गया। इनके नाम और चित्र स्थापत्य कला में जोड़े गए। विजय स्तंभ की दीवारों में जड़े हर पत्थर के दोनों ओर कोई न कोई मूर्ति है। इनमें इसका शिल्पकार परिवार शामिल है। कहा जाता है कि दुर्ग पर निर्माण में विशेष सामग्री का इस्तेमाल किया गया जिसे वज्र लेप कहा जाता है, यही इस दुर्ग और यहां की इमारतों को मज़बूत बनाता है।
चित्तौड़ी गज मीटर या चौबीस अंगुल आज भी निर्माण में मापन के लिए प्रयुक्त होता है।
■ गढ़ तो चित्तौड़
कहा गया है कि
"गढ़ तो चित्तौड़ बाकी सब गढ़ैया" अर्थात् चित्तौड़गढ़ की भव्यता, और शौर्य का कोई मुकाबला नहीं है।
भक्ति, शक्ति और बलिदान की इस भूमि पर जन्म लेना भी गर्व का विषय है, चितौड़गढ़ अपनी आन, बान और शान के साथ ऐसे ही अमर रहे।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग और यह शहर अपने में अगणित गाथाएं समेटे अमर इतिहास का प्रतीक है। इसकी संस्कृति को सहेजना हमारा कर्तव्य ही नहीं हमारा सौभाग्य भी है।
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चित्र: इंटरनेट से साभार
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