ओरण: सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों में अंतर्निहित संरक्षण-संवर्धन की परंपरा


ओरण हमारी सांस्कृतिक विरासत का ऐसा 
उदाहरण है, जो ना केवल श्रद्धानुकूल वरन् व्यावहारिक भी है। 

ओरण ऐसे लघु वनक्षेत्र होते हैं जो मरूधरा में बहार का सा एहसास कराते हैं। ये वनक्षेत्र मरुस्थलों की प्राकृतिक, भौगोलिक व पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुसार होते हैं, तथा अकाल अथवा सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय इन क्षेत्रों के रहवासियों को संबल प्रदान करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि इन क्षेत्रों को लोक देवताओं अथवा पूर्वजों को समर्पित किया जाता है, जिसके चलते कोई यहाँ की वन सम्पदा या वन्यजीवों को नष्ट करना तो दूर, नुकसान पहुँचाने की सोचता भी नहीं। यहाँ निर्मित देवस्थानों के कारण यह भूमि पूजनीय मानी जाती है। श्रद्धा और भय का अनूठा संगम इस अद्भुत व्यवस्था को जन्म देता है, जिसे ओरण कहते हैं, जो अरण्य शब्द का ही अपभ्रंश माना जाता है।

लोगों का इन भूमियों से भावनात्मक जुड़ाव, अनन्य श्रद्धा और अतीव लगाव हुआ करता था, जिसके चलते इनका संरक्षण वे अपना फर्ज़ समझ कर करते थे।

इसके अलावा ओरण हमारी संस्कृति में दूरदर्शिता को भी दर्शाता है। जिन भूमियों को ओरण के रूप में विकसित किया जाना होता था उन्हें १५-२० वर्षों तक फलने फूलने दिया जाता, बिना किसी मानवीय हस्तक्षेप के। और इसके पीछे संभवतः एक कारण यह भी था कि लगभग यही अवधि होती थी, जिसके बाद भीषण अकाल लौट कर आते थे। ऐसे समय में भयंकर सूखे के बीच ये हरे भरे लघु वन सुकून और सहारा देते थे।

कई जीव-जन्तुओं, पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों से घिरे ये वन ग्रामवासियों के लिये ऐसे स्थान थे जहाँ वे ना सिर्फ अपने देवी-देवताओं के प्रति नतमस्तक होते थे, बल्कि जीव जन्तुओं को दाना-पानी दे इस अभूतपूर्व पारिस्थितिकी तंत्र के संवर्धन में योगदान भी देते थे। 

ये भूखंड मानव द्वारा अनछुए रहने के कारण प्राकृतिक रूप से फलते फूलते थे, तथा इनमे स्वतः ही वृक्ष, फल, फूल, औषध, तथा विभिन्न वन्यजीव आश्रय पाते थे। अपने पूर्वजों को भूमि का एक भाग समर्पित कर ग्रामवासी उनके प्रति अपना ऋण चुकाने की चेष्टा में अत्यंत सुन्दर तथा महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र विकसित होने देते थे। पूर्णतः प्राकृतिक रूप से बोए और विकसे ओरणों का लाभ आपदाओं के समय गावों को मिला करता था। कमरतोड़ विपत्ति के समय ओरण गाँव की रीढ़ की हड्डी साबित होते थे, जो ग्राम व उसके वासियों को स्वावलम्बन व जीवन प्रदान करते थे।

अफसोस कि वर्तमान भौतिकवादी युग में मानव सभ्यता की बढ़ती आवश्यकताओं व लालच के चलते ओरणों को नष्ट किया जा रहा है, कहीं कृषि भूमि बना कर, तो कहीं अतिक्रमण करके। वृक्षों की अवैध कटाई, वन्यजीवों का शिकार और विदेशी खरपतवारों का आक्रमण, ऐसा प्रतीत होता है कि मानवीय संवेदनाएं मानवीय लोभ के आगे परास्त होती जा रही हैं।

आज जब समस्त विश्व पर्यावरणीय संकटों से गुज़र रहा है, तथा संरक्षण हेतु वृहद योजनायें बनायी जा रहीं हैं, वहाँ ओरण जैसी ग्रामीण व सामुदायिक व्यवस्था एक मिसाल बन सकती है। 

इस देहाती परम्परा के महत्व पर आपके क्या विचार हैं। कमेंट्स में ज़रूर बताएं।



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टिप्पणियाँ

  1. Informative and something that makes us feel proud of the farsightedness of our ancestors....Keep it up

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    1. आपकी सराहना ही इस ब्लॉग की प्रेरणा है। पढ़ते रहें, सराहते रहें।

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