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फ़रवरी, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

संस्कृत: भाषाओं की जननी

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संस्कृत भाषा विश्व की प्राचीनतम भाषाओं में से एक है। यह वैदिक साहित्य की भाषा है तथा सभी प्राचीन ग्रंथ इसी भाषा में लिखे गये हैं और इसे देवभाषा भी कहा जाता है। संस्कृत भाषा का प्रभाव कई भारतीय भाषाओं पर देखने को मिलता है, जिनमें दक्षिण भारत की भाषाएँ जैसे मलयालम, तमिल, तेलुगू और कन्नड़ प्रमुख हैं। इन भाषाओं के कई शब्द तो संस्कृत से सीधे लिये गए हैं, वहीं कुछ अन्य शब्द अपने संस्कृत रूप से थोड़े बदलाव कर लिये गए हैं। साथ ही मराठी भाषा में भी कई शब्द संस्कृत के हैं। इसके अलावा हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी का तो उद्भव ही संभवतः संस्कृत से हुआ है। आर्यभाषा संस्कृत ने न सिर्फ भारतीय भाषाओं बल्कि अन्य देशों की भाषाओं को भी समृद्ध किया है। विद्वानों का मानना है कि लैटिन व ग्रीक भाषा के कई शब्द उनके समानार्थी संस्कृत शब्दों से मिलते-जुलते हैं। चीन, इंडोनेशिया, नेपाल आदि देशों की शब्दावली भी संस्कृत के रंगों से रंगी है।  अत: इस अति प्राचीन भाषा का प्रभाव विश्वव्यापी है। संस्कृत साहित्य भी अपने आप में समृद्ध और बहुमूल्य है। प्राचीन ग्रंथ भगवद्गीता संस्कृत साहित्य की अनुपम कृति है। संस्कृत के श्लोक, भज

वसंत पंचमी : उल्लास का उत्सव

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वसंत ऋतु के आगमन से माहौल में उत्साह  सा  घुल जाता है। इसी क्रम में माघ मास की पंचमी तिथि को वसंत पंचमी का पर्व उल्लास और आनन्द के साथ मनाया जाता है। इस दिन विशेषतः विद्या की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है और वसंत के स्वागत में पीले वस्त्र पहने व पीले पकवान बनाये और खाए जाते हैं। वसंत ऋतु सभी ऋतुओं में सबसे अधिक मनभावन है क्योंकि, इस ऋतु में खेत-खलिहान, पेड़-पौधों और फूल-पत्तों सभी पर बहार आ जाती है। पीली सरसों से भरे खेत, आम्र मन्जरियों से लदे पेड़, भवरों की गुंजार और तितलियों के रंगों से वातावरण सुवासित और सुन्दर लगने लगता है। वसंत पंचमी को माता सरस्वती का जन्मदिन माना जाता है। उपनिषदों के अनुसार इसी दिन भगवती दुर्गा के तेज से सरस्वती की उत्पत्ति हुई थी। कथा इस प्रकार है कि जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि में पेड़, पौधे, नदी, समुद्र, जीव-जंतु और मनुष्यों का सृजन किया तो यहां मौन का खालीपन था। कोई वाणी या आवाज़ नहीं थी। इस कारण ब्रह्मा को यह सृष्टि अधूरी जान पड़ती थी। तब उनके आवाह्न पर विष्णु जी ने भगवती दुर्गा से यह समस्या बताई। इस पर दुर्गा के तेज से माँ सरस्वती की उत्पत्ति हुई। इस प्रकार संसा

आयुर्वेद: दैवीय चिकित्सा पद्धति

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छायाचित्र-यामिनी दशोरा  आयुर्वेद शब्द आयु: तथा वेद से मिल कर बना है, जिसका अर्थ है आयु अथवा जीवन का ज्ञान। कहा गया है कि, ' आयुर्वेदयति बोधयति इति आयुर्वेद: ', अर्थात वह विज्ञान जो आयु या आरोग्य का ज्ञान कराता है।  आयुर्वेद का ज़िक्र वेदों में भी मिलता है, जिससे यह सिद्ध होता है कि यह चिकित्सा विज्ञान बहुत पुराना है।  इस भारतीय पद्धति को विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा पद्धति होने का गौरव प्राप्त है, इतनी प्राचीन कि माना जाता है, इसका ज्ञान सर्वप्रथम ब्रह्मा ने प्रजापति को दिया था तथा आयुर्वेद के देवता धनवंतरि को विष्णुरूप माना जाता है। आयुर्वेद अत्यंत वृहद् है क्योंकि यह विज्ञान, कला और दर्शन का मिश्रण है।  दिलचस्प बात यह है कि आयुर्विज्ञान न सिर्फ़ रोग निवारण का विज्ञान है, वरन् यह निरोग बने रहने और आयु वर्धन करने से भी सम्बंधित है।  आयुर्वेदानुसार मानव शरीर में सभी रोगों की जड़ त्रिदोषों का असन्तुलन है। ये त्रिदोष हैं- वात, पित्त व कफ। आरोग्य इन त्रिदोषों के संतुलन का ही नाम है।  इस पद्धति के मुख्य रूप से आठ अंग हैं जिन्हें अष्टांग कहा जाता है, ये अंग विभिन्न चिकित्सकीय प्रणालियों

ओरण: सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों में अंतर्निहित संरक्षण-संवर्धन की परंपरा

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ओरण हमारी सांस्कृतिक विरासत का ऐसा  उदाहरण है,  जो ना केवल श्रद्धानुकूल वरन् व्यावहारिक भी है।  ओरण ऐसे लघु वनक्षेत्र होते हैं जो मरूधरा में बहार का सा एहसास कराते हैं। ये वनक्षेत्र मरुस्थलों की प्राकृतिक, भौगोलिक व पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुसार होते हैं, तथा अकाल अथवा सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय इन क्षेत्रों के रहवासियों को संबल प्रदान करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि इन क्षेत्रों को लोक देवताओं अथवा पूर्वजों को समर्पित किया जाता है, जिसके चलते कोई यहाँ की वन सम्पदा या वन्यजीवों को नष्ट करना तो दूर, नुकसान पहुँचाने की सोचता  भी नहीं।   यहाँ निर्मित देवस्थानों के कारण यह भूमि पूजनीय मानी जाती है। श्रद्धा और भय का अनूठा संगम इस अद्भुत व्यवस्था को जन्म देता है, जिसे ओरण कहते हैं, जो अरण्य शब्द का ही अपभ्रंश माना जाता है। लोगों का इन भूमियों से भावनात्मक जुड़ाव, अनन्य श्रद्धा और अतीव लगाव हुआ करता था, जिसके चलते इनका संरक्षण वे अपना फर्ज़ समझ कर करते थे। इसके अलावा ओरण हमारी संस्कृति में दूरदर्शिता को भी दर्शाता है। जिन भूमियों को ओरण के रूप में विकसित किया जाना होता था उन्हें १५-२०