आपणी बोली: मेवाड़ी


हमारा देश विविधताओं का भंडार है, खान–पान, संस्कृति, रीति–रिवाज हों या भाषा, हर एक की कई किस्में यहां हैं। यदि भाषाओं की बात करें तो हर राज्य और प्रांत की अपनी भाषा है। इसी क्रम में राजस्थान राज्य में बोली जाने भाषाओं को राजस्थानी कहा जाता है, लेकिन असल में राजस्थानी न तो कोई भाषा है जो कि किसी समूह के लोगों के द्वारा बोली जाती है, ना ही ये विभिन्न बोलियों का एक समूह है, वरन् राजस्थान के विभिन्न भागों में अलग–अलग बोलियां होती हैं। जैसे मेवाड़ी, मारवाड़ी, हाड़ौती, आदि।

मेवाड़ी राजस्थान की एक प्रमुख बोली है। यह हिंद-आर्य भाषा का एक प्रकार है। लगभग ५० लाख लोगों द्वारा बोली जाने वाली मेवाड़ी मुख्यतः चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा, राजसमंद, उदयपुर आदि में प्रचलित है। मेवाड़ी राजस्थान की दूसरी सबसे ज़्यादा प्रयुक्त बोली है और राजस्थान की संस्कृति में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है।

महाराणा कुंभा के नाटक मेवाड़ी भाषा में ही लिखे गए हैं। मेवाड़ी बोली के अनेक कवि व लेखक इसका मान बढ़ा रहे हैं, और आज पर्याप्त मात्रा में मेवाड़ी साहित्य उपलब्ध है। 

इस भाषा का विकास १२वीं व १३वीं सदी में हुआ और आज भी अनेक राजकीय व गैर-राजकीय शोध संस्थान इस बोली पर शोध कर रहे हैं, तथा इसके विकास और वृद्धि के लिए प्रयासरत हैं। 

मेवाड़ी एक बहुत ही मज़ेदार बोली है, और इसकी अपनी अनूठी शैली है, जो वक्ता और श्रोता दोनों को आनंददायक लगती है। मेवाड़ी के मुहावरे और लोकोक्तियां जीवन के गूढ़ ज्ञान को हल्के–फुल्के तरीके से कह जाते हैं।

राजस्थान प्रदेश में महत्वपूर्ण मेवाड़ी बोली यहां के जनजीवन का अभिन्न अंग है। यहां के रहवासियों का इससे भावनात्मक जुड़ाव है, और यह उनके लिए अपनी बात कहने का सबसे प्रभावशाली तरीका है। मेवाड़ी बोली हमारी वृहद् संस्कृति का एक हिस्सा है, और हमें इस पर गर्व है। इस बोली को सामान्य बोलचाल में शमिल करना और लुप्त होने से बचाना हमारा कर्त्तव्य ही नहीं सौभाग्य भी है।


चित्र –इंटरनेट से साभार 


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